लेख़क: मुहम्मद असजद
दाढ़ी की दीन में क्या हैसियत (स्थान) है इस पर बात शुरू करने से पहले कुछ बुनियादी बातें हम ज़ेहन में रख कर चलेंगे। सबसे पहले यह की किसी भी चीज़ को दीन का दर्जा (श्रेणी) देने या हराम (निषिद्ध) करार कर देने का हक (अधिकार) सिर्फ अल्लाह और उसके रसूल को है। आखिरी रसूल (स.व) के बाद अब किसी को भी ये हक हासिल नहीं की वह दीन में कुछ नया शामिल कर दे या किसी उस चीज़ को हराम करार दे जो की दीन ने हराम नहीं की। अगर ऐसा कोई करता है तो इसे भी शिर्क[1] कहा जायेगा:
उन लोगों (यहूदियों और ईसाइयों) ने अल्लाह को छोड़कर अपने उलेमा (धर्मगुरुओं) को अपना रब बना लिया था। कुरआन [सूरेह तौबा, आयत 31]
इस आयत के खुलासे में एक हदीस:
इस्लाम कबूल करने से पहले हज़रत अदी बिन हातिम (रज़ि.) ने यह आयत सुनी तो रसूलअल्लाह (स.व) से पूछा: “हम लोग अपने उलेमा और धर्मगुरुओं को तो नहीं पूजते!?” रसूलअल्लाह (स.व) ने फ़रमाया: “मगर क्या तुम बगैर दलील (तर्क) और सनद (संदर्भ) देखे अपने उलेमा और धर्मगुरुओं की हलाल (स्वीकृत) की हुई चीज़ को हलाल और हराम कही हुई को हराम नहीं मान लेते थे? तो अदी बिन हातिम बोले जी ऐसा ही है, इस पर रसूलअल्लाह (स.व) ने फ़रमाया की यही तो रब बनाना है।[2]
दूसरे यह की किसी भी चीज़ को दीन करार देने या हराम कहने के लिए कुरआन और सुन्नत[3] से साफ़ और मज़बूत दलील देनी होगी। इसमें किसी बड़े आलिम की राय या अकसरियत (बहुमत) का अम्ल काफी नहीं।
अब इंसानी फितरत पर आते हैं। अल्लाह ने इंसान को एक ख़ास फितरत के साथ पैदा किया है, मिसाल (उदाहरण) के तौर पर औरतों में खुद को नुमाया करना, सजना संवरना उनकी फितरत का हिस्सा है, यह आप उन्हें सिखाते नहीं है और ना ही उन की फितरत से निकाल सकते हैं। मर्दों में ताकत और इख्तियार की जद्दोजहद उनकी फितरत में है। इसी तरह से आप देखें की औरतों को वह चीज़ें पसंद आती हैं जो नाज़ुक और चमक-दमक लिए हो मिसाल के तौर पर ज़ेवरात-गहने और दूसरी तरफ मर्दों को ताकत और रफ्तार देने वाली चीज़ें जैसे की हथियार और गाड़ियाँ। लम्बी-चोड़ी मूँछें रखने में मर्द अपनी शान महसूस करते हैं। इसी तरह से मर्द और औरत दोनों में ही खूबसूरती और बदसूरती का एक तस्सव्वुर (संकल्पना) पहले से मौजूद है। इस मौज़ू (विषय) पर और भी मिसालें दी जा सकती है और इस फितरत को आप इंसानी ज़िन्दगी को देखकर, अपने तजर्बे (अनुभव) के ज़रिये आसानी से पहचान सकते हैं।
इसी तरह दीन के मामले में भी अल्लाह ने इंसान को पहली हिदायत उसकी फितरत में ही दी है, यानी हर इनसान मारुफ़ और मुनकर, अच्छे और बुरे की पहचान अपने अन्दर शुरू से ही रखता है। इंसान चाहे किसी भी मज़हब को मानता हो या ना मानता हो लेकिन वह यह जानता है की झूठ और धोखा एक बुराई है, सच एक अच्छाई है। इसी तरह यह भी फितरत में मौजूद है की बीवी से ताल्लुक (संबंध) का फितरी (प्राकृतिक) तरीका क्या है और क्या चीज़ खाने की है और क्या नहीं। इंसानी फितरत को जहाँ-जहाँ फैसला करने में परेशानी में आ सकती थी वहां-वहां अल्लाह ने इसे “वही”[4] के ज़रिये से हिदायत (मार्गदर्शन) दी है। आसमानी किताबों में हमें उन मामलों में रहनुमाई मिल जाती हैं जहाँ फितरत उलझन और भ्रम में पड़ सकती थी।
इन दोनों ज़रियों से मिली हिदायत में हलाल और हराम सिर्फ यह दो दर्जे (श्रेणी) नहीं हैं बल्कि कुछ चीज़ें पसंदीदा और नापसंदीदा के दर्जे की भी हैं, बहुत सी ऐसी भी हैं की जिनके बारे में कहा जा सकता है की करेंगे तो बेहतर है लेकिन छोड़ देंगे तो इनका सवाल नहीं किया जायेगा। यहाँ तक यह बात साफ़ है की फितरत में अच्छाई और बुराई का तसव्वुर मौजूद है जिसको फितरी दीन भी कहा जा सकता है। यह भी साफ़ है की फितरत में वह चीज़ें भी हैं जिनको दीन नहीं कहा जा सकता जैसे की सजने संवरने का शौक, फितरत में वह चीज़ें भी है जिनको काबू में रखने की ज़रूरत है जैसे की शान और ताकत की चाहत। इस विवरण से यह बात भी निकलती है दाढ़ी को कुछ लोग अगर मर्द की फितरत कहें तो इस बात को तो किसी दर्जे में कबूल किया जा सकता है लेकिन फितरी तौर पर दाढ़ी को दीन करार देने की कोई वजह हमारे पास नहीं है।
इस विश्लेषण के बाद अब हम आसमानी हिदायत में देखते हैं और जो चीज़ “मीज़ान” का दर्जा रखती है उसी से शुरू करते हैं। कुरआन को अल्लाह ने कुरआन में ही मीज़ान का दर्जा दिया है, यानी यह एक कसौटी है जिस पर दीन के मामले परखे जायेंगे और जो की सही और गलत को अलग-अलग करने वाली है। इस आखिरी आसमानी किताब में दाढ़ी के ऊपर कोई हिदायत शुरू से आखिर तक मौजूद नहीं है और ना ही कोई बात इशारे में मिलती है।
इसके बाद अब उन हदीसों का जायज़ा लेते हैं जिनको दाढ़ी के दीन होने के हवाले से पेश किया जाता है:
1- हज़रत आयशा (रज़ि.) से रिवायत है की रसूलअल्लाह (स.व) के हवाले से: दस चीज़ें इंसानी फितरत में से हैं- मूँछें पस्त करना, दाढ़ी बढ़ाना, मिस्वाक करना, नाक में पानी डालना, नाखून काटना, जोड़ धोना, बगलों के बाल साफ़ करना, शर्मगाहों के बाल साफ़ करना, तहारत लेना, ‘और रावी[5] आगे कहता है: ‘दसवीं मुझे याद नहीं यह शायद मुंह को पानी से साफ़ करना हो’।[6] (गौरतलब है की रावी खुद पूरी बात सही याद ना होने की बात कर रहा है जिससे खबर खुद कमज़ोर बन रही है इसके अलावा यहाँ मर्द के खतना कराने का ज़िक्र ही नहीं है जो की खबर का मुद्दा देखते हुए होना चाहिए था)
2- पर्शिया के बादशाह की ओर से दो दूत रसूलअल्लाह (स.व) के पास आये। उनहोने चेहरे शेव किये हुए थे और उनकी मूँछें लम्बी-लटकती हुई थीं। इस पर आप ने नाराज़गी ज़ाहिर की और कहा की तुम्हें किसने ऐसा हुलिया बनाने को कहा है, उन्होंने जवाब दिया की हमारे बादशाह ने। इस पर रसूलअल्लाह (स.व) ने कहा पर मेरे खुदा ने मुझे मूँछें पस्त करने और दाढ़ी बढ़ाने के लिए कहा है।[7] (यहाँ “खुदा ने दाढ़ी बढ़ाने के लिए कहा” है से मुराद फितरत ही मानी जा सकती है क्योंकि यह हुक्म कहीं और नहीं दिया गया है और कुरआन में इस तरह की मिसाल भी मिल जाती हैं जिससे यह बात मज़बूती से कही जा सकती है की यहाँ फितरत की ही बात हो रही है, जैसे की यह हुक्म: “अपनी औरतों से मुलाकात करो जहाँ से अल्लाह ने तुम्हें [इसका] हुक्म दिया है। कुरआन [सूरेह बक़र, आयत 222] (कहाँ हुक्म दिया है? इंसानी फितरत में यह चीज़ मौजूद है यानी फितरत के ज़रिये हुक्म दिया है)
3.ᵢ – इब्न उमर से रिवायत है की रसूलअल्लाह (स.व) ने फ़रमाया: इन मुशरिकों की नकल मत करो, मूँछें पस्त करो और दाढ़ी बढ़ाओ।[8]
3.ᵢᵢ– अबू उमामाह से रिवायत है की रसूलअल्लाह (स.व) ने फ़रमाया: मूँछें पस्त करो और दाढ़ी बढ़ाओ और इन अहले किताब की नकल ना करो।[9]
अब इन हदीसों पर गौर करें तो यह बात सामने आती है की कहीं भी सिर्फ ये नहीं कहा गया की दाढ़ी बढ़ाओ बल्कि इसके साथ एक बात जुड़ी आ रही है की “मूछें पस्त करो”[10], यह पूरी बात हमेशा जोड़े में कही गयी है, यानी ख़ास ज़ोर इस बात पर है की फितरी तौर पर बढ़ाने की चीज़ मूँछें नहीं बल्कि दाढ़ी है अगर आप इससे उलटा करने लगें तो यह कहा जाएगा की इस मामले में असल में जो चीज़ बड़ी करनी थी वह तुमने छोटी कर ली और जो छोटी रखनी थी वह बड़ी कर ली और यही कहा भी गया है। लम्बी-चोड़ी मूँछें असल में तकब्बुर और घमंड की अलामत (निशानी) हैं, लिहाज़ा इन्हें पस्त करने में दीन का मकसद साफ़ दिखाई देता है। इसके अलावा जो दूसरी बात सामने आती है वह यह है की कुछ ख़ास समूह की नकल करने से रोका गया है, यानी हुआ यह है की कुछ खराबियाँ और बिदत[11] जो उन गिरोहों में आ गई थी, उन खराबियों को दूर किया गया है।
यह हदीस देखें:
अबू उमामाह से रिवायत है: रसूलअल्लाह (स.व) अंसार के कुछ बुजुर्गों के पास आये जिनकी दाढ़ी बिलकुल सफेद थी इस पर रसूलअल्लाह (स.व) ने फ़रमाया ‘ऐ अंसार के लोगों अपनी दाढ़ी लाल या सुनहरे रंग की कर लो और इन अहले किताब[12] की नकल ना करो। उन्होंने कहा की रसूलअल्लाह अहले किताब शलवार या तहमद नहीं पहनते, इस पर रसूलअल्लाह (स.व) ने फ़रमाया की तुम पहनो और इन अहले किताब की नकल ना करो। उन्होंने कहा की रसूलअल्लाह अहले किताब इबादत के दौरान जूते या मोज़े नहीं पहनते इस पर रसूलअल्लाह (स.व) ने फ़रमाया की तुम पहन लिया करो और इन अहले किताब की नकल ना करो। उन्होंने कहा की रसूलअल्लाह अहले किताब मूँछें लम्बी करते हैं और दाढ़ी मुंडवाते हैं इस पर रसूलअल्लाह (स.व) ने फ़रमाया की तुम मूँछें पस्त करो और दाढ़ी बढ़ाओ और इन अहले किताब की नकल ना करो’।[13]
इस पूरी हदीस को पढ़ने के बाद ये साफ़ हो जाता है की अंसार में से कुछ लोग अहले किताब के कुछ तरीकों को अपना रहे थे जैसे की बिलकुल सफ़ेद दाढ़ी वाले वह लोग जिनका ज़िक्र इस हदीस में हुआ है कुछ असमंजस में थे की क्या उनका तरीका सही है? क्योंकि यह वह लोग हैं जिन्हें पहले किताब दी गयी थी तो क्या यही तरीका अब मुहम्मद (स.व) के मानने वालों को भी अपनाना चाहिए? इस पर रसूलअल्लाह (स.व) ने उन्हें साफ़ किया है की ये कोई दीन का तकाज़ा नहीं बल्कि उलटे बिदत है जो अहले किताब ने अपने अन्दर पैदा कर ली हैं तो तुम इसे दीन मानकर उसकी पैरवी न करो।
यही बाल रंगना और इबादत में जूते पहनने के बारे में कहा गया पर यह चीज़ें मुसलमानों पर फ़र्ज़ नहीं की गयीं बल्कि एक इस्लाह (संशोधन) के तौर पर ब्यान हुई उसी तरह से दाढ़ी का भी यहाँ यही मामला है। जिस तरह से इस हदीस से शलवार और तहमद का पहनावा और जूते पहन कर इबादत करना सुन्नत नहीं बन जाता उसी तरह से दाढ़ी रखने को भी इस हदीस से सुन्नत या दीन नहीं कहा जा सकता, यह एक ख़ास मामले में की गयी इस्लाह का बयान है।
कुछ और दलील भी देख लेते हैं:
1- कुछ लोग कहते हैं की सारे रसूल दाढ़ी रखते थे।
इस बात पर ध्यान दें की जिन रसूलों की जा रही है वह एक ख़ास माशरे (समाज) से ताल्लुक (संबंध) रखते थे और उस माशरे में मुस्लिम और गैर-मुस्लिम सभी के दाढ़ी थी। अबू लहब, अबू जहल का हुलिया भी उसी माशरे का था और अबू बकर (रज़ि.) उमर (रज़ि.) और अली (रज़ि.) का हुलिया भी वही था। यानी ऐसा नहीं था की रिसालत आने के बाद रसूलअल्लाह (स.व) ने दाढ़ी रखी थी वह तो शुरू से ही थी। इसके अलावा दाढ़ी और सर पर कपड़ा बांधना सेहरा (मरुस्थल) के इलाका में उड़ती रेत से बचाव के लिए एक कारगर चीज़ है। दूसरे यह की शेव करना उस वक़्त में कोई आसान काम नहीं रहा होगा। एक ख़ास जगह के हुलिये को इस तरह से दीन नहीं बनाया जा सकता जब तक उसका साफ़ हुक्म मौजूद ना हो, या फिर लोग माशरे की तहज़ीब (संस्कृति) और दीन का फर्क करना ही भूल जाएँ। इस पूरी बहस से दाढ़ी के बारे में जो ज़्यादा से ज़्यादा कहा जा सकता है वह यह ही की दाढ़ी रखना इंसानी फितरत है या यह की इसको रखना पसंदीदा और मुंडवाना नापसंदीदा है जैसे की शाफिह फिक्हा (धर्मशास्र) में कहा जाता है[14] लेकिन इसको दीन का एक फ़र्ज़ अहकाम (अनिवार्य कार्य) नहीं कहा जा सकता और ना ही इसको दीन शुमार किया जा सकता है।
आप अगर रसूलअल्लाह (स.व) से मुहब्बत दिखाने का एक ज़रिये यह मानते हैं की उनके जैसे ही अरब वाला हुलिया बनाया जाये तो यहाँ तक तो ठीक है लेकिन इसको दीन कहना कहीं से साबित नहीं होता, और रसूलअल्लाह (स.व) से मुहब्बत का सही इज़हार (अभिव्यक्ति) अरबी हुलिया नहीं बल्कि इल्म (ज्ञान), अम्ल (कर्म) और आला (उच्च) किरदार है। अगर नकल ही करनी है तो क्यों ना उस किरदार जैसा किरदार बनाया जाए ना की हुलिए की नकल तक महदूद (सीमित) रहा जाए।
[1] किसी को ईश्वर श्रेणी में रख देना।
[2] तिर्मिर्ज़ी हदीस न.3095, मुसनद इमाम अहमद हदीस न.378/4।
[3] रसूल के जीवन से।
[4] ईश्वर की ओर से प्रकाशना।
[5] हदीस बयान करने वाले।
[6] मुस्लिम: किताबउल तहारा।
[7] ताबारी, (Tārīkhu’l-Umam wa Al-Malūk, vol.3, [Beirut: Dāru’l-Fikr, 1979], pp. 90-1)
[8] बुखारी, किताब उल लिबास।
[9] मुसनद अहमद सं.5, पु.264।
[10] हलकी और छोटी मूँछें रखना।
[11] धर्म में बिना संदर्भ के अपने पास से कुछ नया जोड़ लेना।
[12] अहले किताब यानि यहूद और नसारा।
[13] मुसनद अहमद सं.5, पु.264।
[14] फिकह उल इस्लाम’वा’अदिल्तुहू सं.1, पु. 308।