कुछ विद्वान (आलिम) मानते हैं कि हदीसें कुरआन जितनी ही प्रामाणिक और विश्वसनीय (मुस्तनद और भरोसेमंद) हैं[1]। यह राय ठीक नहीं है। जहाँ कुरआन की प्रमाणिकता जाँचने की ज़रूरत नहीं है वही हदीस की सनद (उसे बयान करने वालो की श्रृंखला) और उसके मतन (मूलपाठ, जो बात उसमें बयान हुई है) दोनों ही को जाँचना बेहद ज़रूरी है।
ग़ामिदी साहब लिखते हैं[2]:
रसूलअल्लाह (स.व) के हवाले से जो चीज़ किसी बात को हदीस बनाती है वह उसकी सनद ही है। इस सनद में छुपी हुई त्रुटी (खामी) के अलावा बयान करने वाले लोगों (रावियों) की विश्वसनीयता,[3]उनकी याददाश्त और उनकी समकालिकता[4] यह तीन चीज़े वह मानक हैं जिनकी जांच उस जानकारी की रौशनी में होनी चाहिए जो हदीस के विद्वानों (आइमा-ए-रिजाल) ने बड़ी मेहनत से जमा की है। यह वह कसौटी है जो इन विद्वानों ने सनद की जाँच-पड़ताल के लिए कायम की है और यह इतनी विश्वसनीय है कि इसमें ना कुछ जोड़ा जा सकता है और ना कुछ घटाया जा सकता है।
अब क्योंकि रसूलअल्लाह (स.व) के हवाले से कोई भी संदिग्ध या कमज़ोर बात बयान करने के नतीजे इस दुनिया और आखिरत दोनों में ही बहुत गंभीर हो सकते हैं इसलिए यह ज़रूरी है कि हर खबर जो रसूलअल्लाह (स.व) के हवाले से दी जाये उसे निष्पक्षता और बिना किसी लापरवाही के इस कसौटी पर परखा जाये, और सिर्फ उन ख़बरों को ही स्वीकार्य माना जाये जो पूरी तरह से इस कसौटी पर खरी उतरती हों,
यानी रसूलअल्लाह (स.व) के हवाले से कोई खबर चाहे वह हदीस की प्रमुख किताबों जैसे कि सही-बुखारी, सही-मुस्लिम और मु’अत्ता में ही क्यों ना आ गयी हो, उसे तब तक नहीं माना जा सकता जब तक वह इस कसौटी पर परखी ना जाये।
सनद के बाद जो दूसरी चीज़ जांचने की ज़रूरत है वह है हदीस का मतन, यानी वह बात, वह शब्द जो हदीस में बयान हुए हैं। हदीस बयान या प्रेषित करने वाले लोगों के चरित्र, उनकी जीवनी और उनके हालात के बारे में सही जानकारी हम तक पहुँचाने के लिए मुहद्दिसीन (हदीस के विद्वानों) ने वैसे तो कोई कसर नहीं छोड़ी और इस काम में अपना पूरा जीवन लगा दिया, लेकिन हर इंसानी काम में कोई त्रुटि, कुछ कमी का हो जाना स्वाभाविक बात है[5], इसलिए ज़रूरी है कि निम्नलिखित दो चीज़ें हमेशा ध्यान में रख कर हदीस के मतन को परखा जाये:
1. उसमें कोई भी बात कुरआन और सुन्नत के खिलाफ नहीं होनी चाहिए।
2. उसमें कोई भी बात इल्म और अक्ल के स्थापित तथ्यों (established facts) के खिलाफ नहीं होनी चाहिए।
कुरआन के बारे में हम पहले ही साफ़ कर चुके हैं कि दीन के मामलों में उसकी हैसियत “मिज़ान” और “फुरक़ान’ (सच को झूठ से अलग कर देने वाली कसौटी) की है। कुरआन दीन के हर हिस्से का संरक्षक (रखवाला) है। सही और गलत का फैसला करने वाला एक निर्णायक (जज) बन कर उतरा है। तो इस बात में तो किसी दलील की ज़रूरत नहीं है कि अगर कोई बात कुरआन के खिलाफ होगी तो उसे स्वीकारा नहीं जा सकता।
यही मामला सुन्नत का है। इसके बारे में भी पहले ही साफ कर दिया गया है कि सुन्नत के ज़रिये से जो भी दीन मिला वह भी कुरआन जितना ही प्रामाणिक है। सुन्नत और कुरआन की सत्यता में कोई फर्क नहीं है जिस तरह कुरआन पूरी मुस्लिम उम्मत की इज्मा (आम सहमति) से साबित है उसी तरह सुन्नत भी पूरी उम्मत की इज्मा से ही निर्धारित (अख़ज़) की जाती है। सुन्नत के बारे में यह तथ्य साफ़ हो जाने के बाद अगर कोई हदीस सुन्नत के खिलाफ कुछ बात रखती है और मतभेद को सुलझाने का कोई रास्ता दिखाई नहीं देता तो इन हालात में उस हदीस को निश्चित रूप से रद्द कर दिया जायेगा।
इल्म और अक्ल के स्थापित तथ्यों की भी इस मामले में यही हैसियत है। कुरआन इस बारे में बिलकुल साफ है कि उस का संदेश पूरी तरह इन्हीं तथ्यों पर आधारित है। एकेश्वरवाद (तौहीद) और परलोक (आखिरत) जैसे बुनियादी मुद्दों के बारे में भी कुरआन का तर्क इन्हीं तथ्यों पर आधारित है। इन्हीं तथ्यों की ज़रूरतों और मांगो को वह अपनी शिक्षा से लोगों के सामने उभारता है। कुरआन पर गौर करने वाले जानते हैं कि अपने संदेश की सत्यता साबित करने के लिए कुरआन इल्म और अक्ल के इन्हीं तथ्यों को निर्णायक आधार की हैसियत से सामने रखता है। कुरआन ने अरब के मूर्ति पूजा करने वाले मुश्रिकीन (बहुदेववादीयों) के सामने भी इन्हीं तथ्यों को निर्णायक आधार के तौर पर सामने रखा और अहले किताब यानी यहूद और नसारा के सामने भी। इन तथ्यों के विरोधियों के बारे में कुरआन साफ़ कहता है कि इन्हें सच्चाई से कोई लेना-देना नहीं बल्कि यह तो सिर्फ अपने मन की इच्छाओं के गुलाम है और उन्हीं का पालन करते हैं। सहजज्ञान, ऐतिहासिक सत्य, शोध और अनुसंधान के नतीजे, कुरआन इन्हीं सब को आधार बनाकर तर्क करता है। इन तथ्यों को खुद कुरआन ने सत्य-असत्य में फ़र्क करने के लिए आधार माना है, तो अब कोई भी खबर इनके खिलाफ जा रही हो तो उसे कैसे स्वीकारा जा सकता है ? यह बात साफ़ है कि ऐसी किसी भी हदीस को रद्द कर दिया जायेगा, हदीस के सभी बड़े विद्वानों का भी इस बारे में यही मानना है।
खतीब बगदादी लिखते हैं:
‘खबरे-वाहिद’ [हदीस] उस सूरत में कबूल नहीं की जाती जब अक्ल अपना फैसला उसके खिलाफ सुना दे, वह कुरआन के किसी साफ हुक्म के खिलाफ हो, किसी मालूम सुन्नत या किसी ऐसे काम के खिलाफ हो जो सुन्नत
की तरह ही किया जाता हो, या किसी निर्णायक तर्क (जामे दलील) के खिलाफ हो।[6]
– शेहज़ाद सलीम
अनुवाद: मुहम्मद असजद
[1]. इस विचार को रखने वालो में से एक प्रमुख नाम इमाम इब्न हाज़्म का है, देखें: इब्न हाज़्म, अल्-फ़स्ल फी मिलाल, भाग- 5, 71-72।
[2]. ग़ामिदी, मीज़ान, 61-63।
[3]. हालांकि इसमें रसूलअल्लाह (स.व) के साथी (सहाबा) एक अपवाद हैं, उनके चरित्र को किसी जांच-पड़ताल की ज़रूरत नहीं, खुद अल्लाह ने कुरआन में उनके चरित्र के विश्वसनीय होने की गवाही दी है, देखें: कुरआन 3:110।
[4]. बयान करने वाले का उस समय में मौजूद होना जबकि बात बयान हो रही हो।
[5]. विस्तार के लिए देखें: अमिन अहसन इस्लाही, “मबादी तदब्बुर-ए-हदीस”।
[6]. खतीब अल्-बगदादी, अल्-किफायह फी’इल्म अल्-रिवायह, 432।