लेखक: शेहज़ाद सलीम
अनुवाद: मुहम्मद असजद
मज़हबी हलकों में यह माना जाता है कि एक पत्नी को घर से बाहर जाने के लिए पति की इजाज़त लेना ज़रूरी है। इस मामले में एक हदीस का हवाला दिया जाता है, जो कि इस प्रकार है:
इब्न उमर (रज़ि.) से रवायत हैं कि एक बार एक महिला रसूलअल्लाह (स.व) के पास आयी और पत्नी पर पति के अधिकारों के बारे में पूछा। रसूलअल्लाह (स.व) ने फरमाया: “…उसको पति की अनुमति के बिना उसके घर से बाहर नहीं निकलना चाहिए”।[1]
सबसे पहले यह समझ लेना चाहिए कि अपनी हैसियत में परिवार की व्यवस्था (खानदान का इदारा) भी एक राज्य जैसी ही है। एक राज्य के सभी नागरिकों से उम्मीद की जाती है कि वह अपने राज्य के सभी नियम एवं कानूनों का पालन करेंगे। उनसे यह भी उम्मीद की जाती है कि वह राज्य में आपसी सामंजस्य और ताल-मेल बढ़ाने वाला रवैया रखेंगे। हालांकि, इस का यह मतलब नहीं कि वह राज्य की नीतियों से अपनी असहमति नहीं जता सकते। यह उनका लोकतांत्रिक अधिकार है कि वह सही तरीके से अपना मतभेद सामने रख सकें।
राज्य में अनुशासन और व्यवस्था (नज़्म) बनाये रखने के लिए यह समर्पण ज़रूरी है बिना इसके अराजकता (बदनज़मी) फैल जाएगी। इसी तरह एक पारिवारिक व्यवस्था में भी यह ज़रूरी है कि जो परिवार का मुखिया हो उसके लिए परिवार में सभी के अंदर आज्ञापालन (इतआत) की भावना होनी चाहिए। दूसरे शब्दों में कहा जाये तो समर्पण और आज्ञापालन किसी लिंग विशेष (मर्द या औरत) के लिए नहीं बल्कि परिवार के मुखिया के लिए है। यह सामान्य ज्ञान की बात है विभिन्न क्षेत्रों में लोग विभिन्न क्षमताएं और योग्यताएं (सलाहियत) रखते है और इंसाफ यह मांग करता है कि हर किसी पर उसकी क्षमता और योग्यता के हिसाब से ही ज़िम्मेदारी डाली जाये और उसी हिसाब से उसे अधिकार भी दिए जाए। हमें अल्लाह ने यह बताया है कि परिवार के मुखिया की ज़िम्मेदारी के लिए पुरुष ज़्यादा उपयुक्त (मुनासिब) है और इसी वजह से कुरआन (4:34) ने पत्नी को पति की आज्ञा मानने का हुक्म दिया है, इसका मतलब यह नहीं है कि मर्द औरतों से बेहतर हैं बल्कि यहाँ मामला यह है कि परिवार का मुखिया बनने के लिए कौन ज़्यादा उपयुक्त है, एक खास ज़िम्मेदारी के लिए जो ज़्यादा उपयुक्त है उसी को अधिकार दिया जायेगा। अगर महिलाएं इससे ज़िम्मेदारी के लिए ज़्यादा उपयुक्त होती तो फिर इसी तरह पुरुषों को समर्पण और आज्ञापालन के लिए कहा जाता।
इस्लाम चाहता है कि पत्नी अपने पति के साथ सामंजस्य और ताल-मेल बढ़ाने वाला रवैया रखे और पति भी पत्नी का स्थान और उसकी ज़रूरतें समझे और स्नेह एवं उदारता का (प्यार भरा) रवैया रखे और पत्नी पर अनुचित (गैर मुनासिब) पाबंदियाँ ना लगाये क्योंकि अगर वह ऐसा करता है तो अल्लाह सब देख रहा है। अल्लाह ने जहां हक़ दिया है वहां वह हिसाब भी लेने वाला है। जहां तक घर से बाहर जाने के लिए अनुमति की बात है तो मामले का सही स्वरूप समझ लेना चाहिए। आम हालात में जहाँ पति-पत्नी में आपसी भरोसा हैं वहां इसकी ज़रूरत नहीं है कि पत्नी हर बार इजाज़त लेकर घर से निकले, लेकिन कुछ खास हालात में जहाँ पति सही मायने में समझता है कि पत्नी का घर से बाहर निकलना परिवार की व्यवस्था में किसी भी तरह की बाधा या बिगाड़ ला सकता है तो ऐसे हालात में उसे हक़ है कि वह उसे रोक दे। ऐसे हालात में यह ज़रूरी है कि पत्नी घर से निकलने की इजाज़त ले। इस मामले में पति को यह ध्यान रखना चाहिए कि अगर वह किसी न्यायोचित (जायज़) वजह के बिना पत्नी पर इस तरह की पाबंदियां लगाता है तो वह तय की गयी हद पार करेगा और अल्लाह को नाराज़ करेगा। उसके गलत व्यवहार के कारण पत्नी उसे छोड़ भी सकती है जिसके लिए वह फिर खुद ही ज़िम्मेदार होगा।
[1]. बैय्हकी, सुनन अल-कुबरा, भाग.7, 292, (न.14490)