ऐसा माना जाता है कि इस्लाम में जीवन रखने वाली चीज़ों की तस्वीर या आकृति बनाना हराम है।[1] बदकिस्मती से इस मुद्दे पर इस्लाम के रुख को समझने में बड़ी ग़लतफ़हमी हुई है। यह बात बिलकुल सही नहीं है कि इस्लाम में तस्वीरें और चित्र पूरी तरह से हराम हैं। इस्लाम ने सिर्फ उन तस्वीरों पर रोक लगायी है जो लोगों में उपासना (इबादत) की भावना (जज़्बा) पैदा करती हैं या इसी भावना से बनायी जाती हैं। इसीलिए हम देखते हैं कि ना सिर्फ यह कि कुरआन में इस तरह के किसी प्रतिबंध (रोक) का कोई ज़िक्र नहीं है बल्कि तथ्य यह है कि कुरआन में अल्लाह के पैगंबर सुलेमान (स.व) द्वारा बनाए गए चित्रों और मूर्तियों की प्रशंसा मौजूद है। अगर इस तरह के प्रतिबंध का कोई मामला होता तो कुरआन ने इस काम की निंदा (मज़म्मत) ज़रूर की होती।
يَعْمَلُونَ لَهُ مَا يَشَاءُ مِن مَّحَارِيبَ وَتَمَاثِيلَ وَجِفَانٍ كَالْجَوَابِ وَقُدُورٍ رَّاسِيَاتٍ ۚ اعْمَلُوا آلَ دَاوُودَ شُكْرًا ۚ وَقَلِيلٌ مِّنْ عِبَادِيَ الشَّكُورُ
[٣٤: ١٣]वह उसके लिए जो वह चाहता था, बनाते थे: मेहराबें, तमासील[2], बड़ी-बड़ी हौज़ जैसे लगन और पहाड़ जैसी [चुलूहों पर] जमी हुई देग़े। दाऊद के घर वालो [अपने परवरदिगार का] शुक्र अदा करते रहो। हकीक़त यह है कि मेरे बन्दों में कम ही शुक्रगुज़ार हैं। (34:13)
बाइबिल में सुलेमान (स.व) की इबादत गाह में चित्रों और मूर्तियों के बारे में और विस्तार से ब्यौरा मिलता है:
दर्शन-स्थान में उसने दस दस हाथ ऊंचे जलपाई की लकड़ी के दो करूब बना रखे।
एक करूब का एक पंख पांच हाथ का था, और उसका दूसरा पंख भी पांच हाथ का था, एक पंख के सिरे से, दूसरे पंख के सिरे तक दस हाथ थे। और दूसरा करूब भी दस हाथ का था; दोनों करूब एक ही नाप और एक ही आकार के थे। एक करूब की ऊंचाई दस हाथ की, और दूसरे की भी इतनी ही थी।और उसने करूबों को भीतर वाले स्थान में धरवा दिया; और करूबोंके पंख ऐसे फैले थे, कि एक करूब का एक पंख, एक भीत से, और दूसरे का दूसरा पंख, दूसरी भीत से लगा हुआ था, फिर उनके दूसरे दो पंख भवन के मध्य में एक दूसरे से लगे हुए थे। और करूबों को उसने सोने से मढ़वाया। और उसने भवन की भीतों में बाहर और भीतर चारों ओर करूब, खजूर और खिले हुए फूल खुदवाए। (1 राजा 6:23-29)
फिर उसने पीतल के दस पाये बनाए, एक एक पाये की लम्बाई चार हाथ, चौड़ाई भी चार हाथ और ऊंचाई तीन हाथ की थी। उन पायों की बनावट इस प्रकार थी; उनके पटरियां थीं, और पटरियों के बीचों–बीच जोड़ भी थे। (1 राजा 7:27-28)
इस प्रकार से एक एक खजूर की एक ओर मनुष्य का मुख बनाया हुआ था, और दूसरी ओर जवान सिंह का मुख बनाया हुआ था। इसी रीति सारे भवन के चारों ओर बना था। भूमि से ले कर द्वार के ऊपर तक करूब और खजूर के पेड़ खुदे हुए थे, मन्दिर की भीत इसी भांति बनी हुई थी। भवन के द्वारों के खम्भे चौपहल थे, और पवित्रस्थान के साम्हने का रूप मन्दिर का सा था। (यहेजकेल, 41:19-21)
यहाँ तक यह बात बिलकुल साफ है कि कुरआन ने तस्वीर और आकृतियों को हराम नहीं किया है। इस प्रतिबंध का आधार (बुनियाद) कुछ हदीसें हैं। इन सभी हदीसों को जमा कर के गौर करने पर जो पूरी बात सामने आती है वह यह है कि एक खास तरह की तस्वीरें और आकृतियां मूर्तियों की तरह पूजी जाने लगी थीं। अरब के लोग उन्हें देवी-देवता मानने लगे थे। उन्हें ऐसा माना जाने लगा था जैसे कि वह जीवित हैं और लोगों की मुरादें और इच्छाएं पूरी करने में सक्षम (काबिल) हैं।[3] लोग उन्हें उपास्य मानकर उनके आगे झुकने लगे थे। इतिहास से मालूम चलता है कि काबे की भी दीवारों, स्तंभों और छत पर बहुत सी पूज्य मानी जानी वाली तस्वीरें बनी हुई थीं। इसी तरह यह बात भी दर्ज है कि काबे के स्तंभों पर इब्राहिम (स.व), ईसा (स.व) और मरियम (रज़ि.) की आकृतियां बनी हुई थी।[4]
इस विवरण की रौशनी में तस्वीर और आकृतियों पर रोक को आसानी से समझा जा सकता है: सिर्फ वह तस्वीरें मना हैं जो अपने अंदर धार्मिक महत्व रखती हैं और लोगों को अपनी पूजा-आराधना की तरफ ले जाती हैं। यह बात बिलकुल साफ है कि तस्वीरें, छवि चित्र और आकृतियां आदि बनाने की निंदा इसलिए नहीं की गयी कि इनके अपने अंदर कोई बुराई मौजूद है बल्कि इसलिए की गयी क्योंकि यह लोगों में बहुदेववाद (शिर्क) को बढ़ावा देने का काम कर रहीं थी। कुरआन एकेश्वरवाद (तौहीद) को ही ईमान की बुनियाद करार देता है और रसूलअल्लाह (स.व) समाज को बहुदेववाद से पवित्र (पाक) करना अपना कर्तव्य (फ़र्ज़) मानते थे, इसलिए उन्होंने उन तस्वीर और आकृतियों के उन्मूलन (खत्म करने) का आदेश दिया जिन्हें देवी-देवताओं का दर्जा हासिल हो गया था, और इसलिए अगर इन हदीसों का ध्यानपूर्वक अध्ययन (पढ़ा) किया जाये तो वहां कुछ यह शब्द मिलेंगे: "इस तरह के चित्रों" और "इन चित्रों", जो कि एक खास तरह के चित्रों की तरफ इशारा करते हैं सब तरह के चित्रों की तरफ नहीं।[5] इसी संबंध में, एक और हदीस लें जो चित्रों के पूरी तरह मना होने के समर्थन में दी जाती है। सहीह बुखारी में रसूलअल्लाह (स.व) के हवाले से दर्ज शब्द इस प्रकार हैं:
अब्दुल्लाह इब्न उमर रसूलअल्लाह (स.व) से रवायत करते हैं: “बेशक इस तरह के चित्र बनाने वाले को कयामत के दिन सज़ा दी जाएगी और उनसे कहा जायेगा: ‘जो कुछ तुमने बनाया है उसमें जान डालो’”[6]
यह शब्द उसी बात का इशारा कर रहें हैं, जो पहले हम देख चुकें हैं। लोग चित्रों को जीवित मानकर उनसे मदद माँगा करते थे। हदीस में ऐसे लोगों को चेतावनी दी गयी है और कहा जा रहा है कि जो लोग इन आकृतियों को जीवित मानकर यह सोचते हैं कि यह कयामत के दिन अल्लाह के प्रकोप (अज़ाब) से उन्हें बचा लेंगे उनसे कहा जायेगा कि अब ज़रा इनमें जान डालकर दिखाओ अगर यह मदद कर सकें तो और अगर तुम्हारे गुनाहों की सज़ा से तुम्हें बचा सकें। इस मांग के ज़रिये असल में उन्हें एहसास दिलाया जायेगा कि वह क्या कुछ करते रहे थे।
यह बात बिलकुल साफ़ है कि इस्लाम ने सिर्फ एक खास तरह की तस्वीर और आकृतियां हराम की हैं। अगर तस्वीर, आकृतियों और वास्तुशिल्प (मुजस्समें) कला को बहुदेववाद (शिर्क) से पाक करके देखा जाये तो फिर इसे प्रतिबंधित बिलकुल नहीं कहा जा सकता। आज के दौर की तस्वीरें, जो पहचान पत्र, पासपोर्ट आदि के रूप में एक सामाजिक ज़रूरत भी बन गयी हैं, इन पर इस्लाम को कोई आपत्ति (एतराज़) नहीं है, फिर चाहे वह सिर्फ तस्वीर हो या चल-चित्र (वीडियों)। इसी तरह रिश्तेदारों और घरवालों की तस्वीरों पर भी कोई प्रतिबंध नहीं है।
– शेहज़ाद सलीम
अनुवाद: मुहम्मद असजद
[1]. उदाहरण के लिए देखें: बद्र अल-दीन महमूद इब्न अहमद इब्न मूसा इब्न अहमद अल-एनी, “उम्दाह अल-कारी शराह सही अल्-बुखारी, भाग.22, 70।
[2]. तमासील शब्द तिमसाल का बहुवचन (जमा) है और इस के अर्थ में जानदार और बेजान दोनों चीज़ों की आकृतियां और मूर्तियाँ शामिल हैं।
[3]. देखें: जव्वाद अली, अल्-मुफ़स्सल फी तारीख अल्- अरब क़ब्ल अल्-इस्लाम, सं. 2 भाग. 6, 141; पूर्वोक्त, भाग. 6, 69।
[4]. उदाहरण के लिए देखें: अबू अल-वलीद मुहम्मद इब्न अब्दुल्लाह इब्न अहमद अल-अज़राकी, अख़बार मक्काह, भाग.1, 165।
[5]. उदाहरण के लिए देखें: सहीह बुखारी, भाग. 6, 2747, (न. 7119) ; सहीह मुसलिम, भाग. 3, 1629 (न. 2107)।
[6]. सहीह बुखारी भाग. 5, 2220, (न. 5607)।